बाराबंकी : प्रकृति के कण-कण में अपने आराध्य का दीदार करने वाले सूफी संत हजरत सैय्यद हाजी वारिस अली शाह पैदाइशी वली थे। उनके संदेश लोगों के दिलों में ¨जदा हैं। हाजी वारिस अली शाह का जन्म हजरत इमाम हुसैन की 26 वीं पीढ़ी में हुआ था। उनके पूर्वजों का ताल्लुक ईरान के निशापूर के सैय्यद वंश से था। सूफी संत के एक पूर्वज ने बाराबंकी के रसूलपुर ¨कतूर में निवास किया। यहीं से एक बुजुर्ग अब्दुल अहद साहब देवा चले आए। यहां उनकी पांच पीढि़यां बीतीं और हजरत सैय्यद कुर्बान अली शाह के पुत्र के रूप में सरकार वारिस पाक ने जन्म लिया। सूफी संत की पैदाइश पहली रमजान को हुई थी। वे बचपन में मिट्ठन मियां के नाम से जाने जाते थे। जब वे तीन वर्ष के थे तो वालिद सैय्यद कुर्बान अली शाह और कुछ दिन बाद उनकी वालिदा का भी देहावसान हो गया। इसके बाद उनकी दादी साहिबा ने उनकी देखभाल की। उनकी देखभाल उनके चचा सैय्यद मुकर्रम अली करते थे। पांच वर्ष की आयु में सूफी संत जब मकतब (पाठशाला) पहुंचे। उन्होंने दो साल में ही कुरआन कंठस्थ कर ली। सात वर्ष की आयु में उनकी दादी का भी उनके सिर से साया उठ गया। इसके बाद उनके बहनोई हजरत हाजी खादिम अली शाह साथ लखनऊ ले गए और वहीं पढ़ाई कराई। वे अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे। पंद्रह वर्ष की उम्र में वारिस पाक ने हज का इरादा किया। अजमेर शरीफ उर्स में शिरकत करते हुए यात्रा शुरू कर दी और 17 बार हज किया। 12 वर्ष की यात्रा में उन्होंने अरब, ईरान, ईराक, मिस्त्र, तुर्की सहित कई यूरोपीय देशों की यात्रा की। सभी धर्मों के लोग उनके अनुयायी थे। उनके सूफी दर्शन के सन्देश लोगों को सौहार्द और मोहब्बत का सन्देश दे रहे हैं। 1 सफर 1323 हिजरी तदनुसार 6 अप्रैल 1905 को सुबह 4 बजकर 13 मिनट पर सूफी संत हाजी वारिस अली शाह ने दुनिया से पर्दा कर लिया। उन्हें कस्बे में ही समाधि दी गई। उनके आस्ताना शरीफ पर आज भी देश -विदेश के लाखों जायरीन अपनी खिराजे अकीदत पेश करने आते हैं।
Edited by : Rahman